hindisamay head


अ+ अ-

कविता

कविता के बाहर

विमलेश त्रिपाठी


समय की तरह खाली हो गये दिमाग में
या दिमाग की तरह खाली हो गये समय में
कई मसखरे हैं
अपनी आवाजों के जादू से लुभाते

शब्दों की बाजीगरी है
कविता से बाजार तक तमाशे के डमरू की तरह
डम-डम डमडमाती
एक अन्धी भीड़ है
बेतहाशा भागती मायावी अँजोर के पीछे

मन रह-रह कर हो जाता है उदास और भारी
ऐसे में बेहद याद आती हैं वो कहानियाँ
जिसे मेरे शिशु मानस ने सुना था
समय की सबसे बूढ़ी औरत के मुँह से
जिसमें सच और झूठ के दो पक्ष होते थे
और तमाम जटिलताओं के बावजूद भी
सच की ही जीत होती थी लगातार

उदास और भारी मन
कुछ और होता है उदास और भारी
सोचता हूँ कि कहानियों से निकल कर
सच किस जंगली गुफा में दुबक गया है
क्यों झूठ घूमता है सीना ताने
कि कई बार उसे देखकर सच का भ्रम होता है

आजकल जब कविता के बाहर
सच को ढूँढ़ने निकलता हूँ
मेरी आत्मा होती जाती है लहूलुहान
अब कैसे कहूँ
कि वक्त-बेवक्त समय की वह सबसे बूढ़ी औरत
मुझे किस शिद्दत से याद आती है

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में विमलेश त्रिपाठी की रचनाएँ